आत्म-जागरूकता

अच्छे बनो, बिना किसी भय के

गीता में जहाँ गुणातीत महापुरुष के लक्षण दिए गए हैं, वहाँ बताया गया है कि जो व्यक्ति सुख और दुख दोनों में समान रहता है, वह वास्तव में स्थिरबुद्धि और मुक्त होता है। लेकिन हम अक्सर दूसरों से आशा और अपेक्षाएँ रखते हैं। यह हमारी कमजोरी होती है, जो हम खुद ही पैदा करते हैं। हमें अच्छा बनना चाहिए, लेकिन केवल अपनी भलाई के लिए, अपने उत्थान के लिए। “लोग क्या कहेंगे, क्या समझेंगे” इस भय ने कई लोगों का जीवन बिगाड़ दिया है। इस भय को छोड़कर निश्चिंत हो जाना चाहिए। अगर दूसरे हमें बुरा कहते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि वे हमें बुरा कहना बंद कर देंगे। जिसे जो कहना है, वह वही कहेगा। यह सोचना हमारा काम नहीं है।

कल्पना कीजिए, किसी परिवार में एक लड़की बहू बनकर आती है। सबकी उम्मीदें यही होती हैं कि बहू चाँद का टुकड़ा हो, संस्कारी हो, सहनशील हो, हंसमुख हो, और सबका सम्मान करे। लड़की भी यह जानती है कि ससुराल में सभी उससे यही उम्मीद रखते होंगे। ऐसी उम्मीदें जीवन को दुखी बना देती हैं। लड़की इन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए अपने स्वाभाविक व्यवहार को बदलने लगती है। उसके लिए सबके प्रति अपनापन और प्रेम एक डर का रूप ले लेता है। क्योंकि कोई भी इंसान शत प्रतिशत सही नहीं हो सकता, यदि किसी बात से ससुराल वाले या पति असंतुष्ट होते हैं, तो वह उनका विरोध नहीं कर पाती। इस डर के कारण वह निर्भय होकर जी नहीं पाती, और संबंधों की शुरुआत ही गलत हो जाती है। और यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है।

आपको निर्भय होकर कोई भी निर्णय लेना चाहिए, यह सोचकर नहीं कि लोग क्या कहेंगे। यदि कोई बात न्यायसंगत नहीं लगती, तो उसका विरोध करना चाहिए। जितना हो सके, अपनी सच्चाई पर अडिग रहें। जब आप अपनी जगह पर सच्चे हैं, नीयत ठीक है, भाव सच्चे हैं और विचार सही हैं, तो फिर डर कैसा? दूसरों से यह आशा मत रखें कि वे आपको अच्छा समझें।

दूसरा प्रश्न यह है कि क्या हमें अपनी गलतियाँ दिखती भी हैं या हम मानते हैं कि हमसे गलती हो ही नहीं सकती? यदि ऐसा सोचते हैं, तो आप निश्चित रूप से गलत हैं। हमारे ऊपर स्वार्थ और अहंकार का पर्दा चढ़ा हुआ है। हमें अपने अंदर के अवगुणों को पहचानते हुए उन्हें दूर करते रहना चाहिए। जब आप ऐसा करेंगे, तो आपको अपने उन अवगुणों का भी पता चलेगा, जो अब तक नजर नहीं आए थे।

यदि आप खुद को नहीं सुधार सकते, तो दूसरों को कैसे सुधार सकते हैं? यह सत्य है कि बड़े-बड़े महात्मा और आचार्य भी दूसरों को पूरी तरह से सुधार नहीं पाए या अपने जैसा नहीं बना पाए। शिष्य चाहे तो वह गुरु से भी तेज़ बन सकता है, पर गुरु उसे वैसा बना नहीं सकते। सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को खुद से भी श्रेष्ठ बनाना चाहता है। गुरु हमेशा गुरु रहता है और चेला, चेला ही रहता है।

मनुष्य हर जगह अपनी विजय चाहता है, लेकिन पिता हमेशा अपने पुत्र की सफलता चाहता है। वह चाहता है कि उसका पुत्र उससे भी अधिक कामयाब हो। लेकिन अगर पुत्र या शिष्य खुद में ऐसी इच्छा रखेगा, तभी वह श्रेष्ठ बनेगा। आप ही अपने बंधु हैं और आप ही अपने शत्रु हैं। यदि आप अपनी जगह श्रेष्ठ हो जाते हैं, तो आप श्रेष्ठ बन जाएंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

लोग मुझे अच्छा कहें, इसकी आशा मत रखें। यह भी मत सोचें कि कोई मुझे बुरा न कहे। ऐसा भय हमें पतन की ओर ले जाता है। जो व्यक्ति दूसरों के प्रमाण-पत्र पर निर्भर रहता है, वह कभी ऊपर नहीं उठ सकता।

सोचिए, जब आप बाजार में पैंट या शर्ट खरीदने जाते हैं, तो सबसे पहले मन में यह सवाल आता है कि “मैं इसमें कैसा लगूंगा?” फिर सोचते हैं, “दूसरों को यह कैसा लगेगा?” यहाँ पहला विचार मूल्यवान है, दूसरा मूल्यहीन। आप खुद से पूछिए, क्या आप वास्तव में सच्चा जीवन जी रहे हैं? जीवन में सबसे कीमती चीज़ें अपनी अच्छाई और सच्चाई की कीमत पर नहीं चुनी जानी चाहिए।

जिस प्रकार एक कठोर पत्थर, चाहे कितना भी घिसा हुआ हो, अपनी चमक नहीं खोता, उसी प्रकार सिर्फ अच्छा कहलाने के लिए अच्छा मत बनो। अच्छे बनने की इच्छा रखो, और सच में अच्छे बनो।

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