दर्शनशास्त्र

दो दिन का जग, सब चला-चली का खेल…

दो दिन का यह जग, सचमुच चला-चली का खेल है। दुनिया में आए हैं तो एक दिन सभी को जाना सुनिश्चित है। यह बात हम सभी जानते हैं, सुनते हैं, किसी लोभी व्यक्ति का यही ताना देते सुनते कानों में पड़ जाती है – “क्या छाती पर बाँधकर ऊपर ले जाएगा? सब यहीं का यहीं धरा रह जाएगा!” लेकिन मानव तो मानव है, मन तो मानव है। उसे कहाँ इन सब बातों से लेना-देना! वह जीता है मानो अमर हो, अपनी नश्वरता को भूलकर। समय कितना बीत गया, इसका उसे भान ही नहीं रहता, वह उसे ऐसे लुटाता है जैसे उसके पास अनंत भंडार हो – जबकि जिस दिन को वह किसी व्यक्ति या कार्य को समर्पित कर रहा होता है, वही उसका अंतिम दिन भी हो सकता है। वह डरता तो है मानो मरणशील हो, पर इच्छाएं उसकी ऐसी होती हैं जैसे अमर हो… जीवन को सचमुच जीना शुरू करने में कितनी देर कर देता है मनुष्य, जब कि जीवन का अंत समीप होता है! अपनी मृत्यु को भूल जाना कितनी मूर्खता है, और समझदारी भरी योजनाओं को अपने पचासवें और साठवें वर्ष तक टालते रहना, उस बिंदु से जीवन शुरू करने का लक्ष्य रखना जहाँ तक बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं!

दौलत राम जी भी धन कमाने की दौड़ में ऐसे लगे रहे कि बीमार हो गए। शरीर ने साथ छोड़ दिया। तब एहसास हुआ, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बिस्तर पकड़ लिया। धीरे-धीरे शरीर के साथ-साथ साँस भी साथ छोड़ने को आ गई। उनकी नब्ज़ भी काम चल रही थी, और अब तो ना के बराबर चल रही थी। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। डॉक्टर ने कहा, “जिसे खबर करना है, कर दें।” इस बात को सुनते ही बेटों की चेतना जाग उठी। अभिलंब वकीलों को वसीयतनामा तैयार करने की सूचना दी गई। रिश्तेदारों को भी सभी संचार माध्यमों से अलर्ट रहने की खबर भेज दी गई।

हमेशा उदासीन बने रहने वाले पास-पड़ोसी की भी हर घंटे आवक-जावक बढ़ गई। बुजुर्ग होने के नाते, बेटों ने कान में कुछ फुसफुसाए। पड़ोसी महिलाएं भी पूजा-पाठ के उपक्रम में लग गईं। उनके दोस्त भी प्रायः आ चुके थे। उनके जाने के बाद की समस्त तैयारी, उनके जाने से पहले ही कर ली गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके जगत से विदाई की बेसब्री से प्रतीक्षा की जा रही थी। बात-बात पर अपनी उम्र उन्हें लग जाने की बात करने वाले दोस्त भी कह रहे थे, “ठीक है, अब जाने की उम्र आ गई है, जाना भी चाहिए। कब से बीमार चल रहे थे। ये जाएँ तो सब अपने काम पर ध्यान दें।” बेटे कभी एकमत नहीं रहते थे, वे भी अब साथ-साथ नज़र आ रहे थे। बहुएँ भी आदर्श बहू की तरह उनके चरणों में बैठी थीं। सदा सतत गीता पाठ चल रहा था।

लेकिन दौलत राम जी की आत्मा भी सांसारिक मोह-माया के मकड़जाल में ऐसी लिपटी थी कि स्वर्ग का, स्वर्गलोक का, मोक्ष का मार्ग धारण कर ही नहीं पा रही थी। जिन बेटों की परवरिश में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया था, एक-एक रुपया जोड़कर बच्चों का भविष्य बनाया था, आज उनके इस व्यवहार से वे द्रवित हो उठे। आज पहली बार दुनियादारी की इस हकीकत से अवगत हो रहे थे।

जो मित्र घंटों उनके साथ कुर्सी पर बैठकर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, धूप सेवन करते थे, वे सभी उनके जल्दी से निकल जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ तो लगातार अपने प्रतिष्ठान की पल-पल की हलचल मोबाइल से जान रहे थे एवं अपने होने वाले नुकसान का लेखा-जोखा कर रहे थे। सच में, मन ही मन कुढ़ रहे थे – “इतना समय क्यों ले रहे हैं जाने में!” दौलत राम जी के कई नौकरीपेशा मित्र इस चिंता में थे कि “कल तो पहले ही छुट्टी ले ली, अब एक और! जैसे-तैसे इस हफ़्ते के लिए छुट्टी बचा कर रखी थी, इमरजेंसी के लिए बचा कर रखी थी, इसे क्यों ली जाए! चार घंटे से कम समय तो नहीं लगेगा उनकी अंतिम यात्रा में! क्यों न 10 मिनट के उठाने में ही शामिल हो लिया जाए? फोटो पर पुष्पांजलि अर्पित करते हुए फोटो लेना मुफ़ीद रहेगा। सोशल मीडिया का सहारा भी लिया जा सकता है!”

दौलत राम जी ने जिस पत्नी को कभी महंगी साड़ी या जेवर का एक दाना तक लाकर नहीं दिया था, ना कहीं घूमने ले गए थे, और तो और बाहर खाना व सिनेमा दिखाने के लिए ले जाना तक मुनासिब नहीं समझते थे – वही पत्नी आज उनके पास बैठी थी। आज जब दौलत राम जी ने पत्नी की तरफ नज़र डाली, तो वह कोने में बैठी, पति वियोग में आधी हुई जा रही थी। पति वियोग उसके चेहरे पर स्पष्ट नज़र आ रहा था। बीते वर्षों की स्मृतियों से उसकी आंखें नम हो गई थीं।

संघर्ष के भरे शुरुआती दिनों में कैसे पत्नी ने धैर्य के साथ उनका साथ दिया था! पति एवं परिवार सेवा को अपना धर्म माना था। दौलत राम जी का जी चाह रहा था कि अब चार दिन और जीवन के मिल जाएँ, तो पत्नी को दुनिया-जहाँ की खुशी दे दूँ! और अपने इस रिश्ते के प्रति पूर्व में किए गए व्यवहार से माफ़ी मांगूँ, प्रायश्चित करूँ! मगर ऊपर वाले की मर्जी के आगे किसकी चलती है!

वे सोच रहे थे, “अब कहाँ वापस आ सकूँगा! सारी बातें, सारी गलतियाँ, सारी क्षमा याचना, सारे झूठ, सारे उपकार, इंसान को जीते-जी ही मान लेना चाहिए। वरना मृत्यु इसकी इजाज़त नहीं देती।” वे अपनी पत्नी से यह सारी बातें कहना चाहते थे, लेकिन अब समय बीत चुका था।

और उन्होंने देखा कि धीरे-धीरे उनके घर के बाहर भीड़ इकट्ठा होने लगी है। सभी बहुत ही जल्दी में दिखाई दे रहे थे। कुछ तो इतने व्यस्त थे कि श्रद्धांजलि देने की रस्म अदा कर, होना अपने प्रतिष्ठान, कार्यालय या कोई और कार्य-क्षेत्र की ओर प्रस्थान करने के लिए प्रतिबद्ध थे, ताकि सामाजिक और आर्थिक दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन कर सकें। कुछ ही देर में एक ठंडी हवा का झोंका आया और आत्मा अनंत में विलीन हो गई। केवल उनका शरीर रह गया था, जिसको काँटों की तरह चुभने वाले लोग, गुलाब के फूलों से सजा रहे थे।

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